Monday, May 2, 2011

व्यंग्य रचना- "अंकल-आंटी "

ममा ! कका ! कोन्हों नहीं जाने
दीदी ! भाँटो !कोन्हों  नहीं  माने
भुलागे   हे  सब  संगी ! मितान !
अंग्रेज  मन  बन  गे   हे  महान
हमर  देस  के  नहीं हे पहिचान
रिश्ता  - नाता  के  छूटे  परान .

जउन  कहूँ बोलय
अंकल -आंटी !
बाँधव  ओखर  गला - मा  घंटी
बइला   कस   हकालौ    ओला
मारव   ओला   सूंटी   च   सूंटी
मारव   ओला   सूंटी   च   सूंटी
अउ  
बोलबे   रे !  मोला  आंटी.

कोन्हों  ला  देखे  बोलय आंटी
कोन्हों   ला    कहिदे   अंकल
जेल     पाय      तेला    कहय
अंकल -आंटी  ,  आंटी-अंकल !

 
जौन कहूँ बोलही तुम्हला अंकल
बाँधीहौ  उन्कर  नरी - मा संकल.

बेंदरा     कस     घुमावौ     ओला
इहाँ   -   उहाँ     नचावौ     ओला

 
सोचो   बिचारौ  तुम सब आज
ये  हमर  देस  के  नोहै  रिवाज
दूसर  के   देखा  -  देखी  -  मा
बदलौ झन तुम अपन अंदाज
पागे  हौ   तुम  अपन   सुराज
अपन संस्कृति के राखव लाज.


 -श्रीमती सपना निगम
   आदित्य नगर , दुर्ग
   छत्तीसगढ़

2 comments:

  1. सपना जी को मेरा सस्नेह अभिवादन....

    दूसर के देखा - देखी - मा
    बदलौ झन तुम अपन अंदाज
    पागे हौ तुम अपन सुराज
    अपन संस्कृति के राखव लाज.

    बहुत ही प्रेरणा दायक । सकारात्मक , अच्छी प्रस्तुति।
    हार्दिक शुभकामनायें ! एवं साधुवाद !

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छे तरीके का व्यंग है| कविता अपनी संस्कृति को लेकर क्रान्तिकारी विचारों वाली है|मै आपकी भावनाओं का समर्थन करता हूँ|

    ReplyDelete

Pages

Followers