“ छत्तीसगढ़ – स्थापना दिवस के राज्योत्सव मेला”
अंधा लंगड़ा बड़े मितानी
सुने हो हौ तुम कहानी
कहूँ जनम के दुनो संगवारी
हो है लाग मानी
भीख मांग के करे गुजारा
उमन दुनो परानी
इक दूसर संग मेला घूमत
काट दईंन जिनगानी
लंगड़ा के रहे नाम बंशी
अँधा के गंगा राम
धरम धाम के नाम ला लेके
कर आइन चारों धाम
राजिम जाके राजीव लोचन
कर आइन परनाम
रायपुर तीर मा डारिन डेरा
करन लगिन अराम
वही बखत राज्योत्सव मेला के
चले रहे बड़ नाम
मेला घूमे के सउक मा
बंशी के होगे नींद हराम
लंगड़ा कहे राज्योत्सव मेला
चल तोला देखातेंव
आनी बानी के खई ख़जेना
चल तोला खवातेंव
किसम किसम के गाना बजाना
चल तोला सुनातेंव
झूमा झटकी के नाचा गाना
चल तोला नचवातेंव
चकरी झुलना हवाई झुलना
चल तोला झुलातेंव
लईका मन के छुक छुक रेल मा
चल तोला बैठातेंव
अइसन कस राज्योत्सव मेला
कभू नहीं जा पाएँन
अभी कहूँ तोर संग मिल जाहे
चल ओला भी देख आयेन
अँधा कहे मैं देखिहौं का
मैं दुनों आखी के अँधा
यिहें आके बिसरागेहों मैं
भीख मांगे के मोर धंधा
चल आजा बइठ जा मोर खान्द मा
मोर नरी के फंदा
बड़े फज़र ले मैं उठ जाथौं
तैं रहिथस उसनिन्दा
छत्तीसगढ़ महतारी के
रखले मर्यादा जिंदा
भीख मांगे मा हो जाही
धनही दाई शर्मिंदा
जीयत मनखे के बोझा ला ढोवत
खान्द हा मोर पीरा गे
अऊ कतेक ले किन्जरबे तैंहा
जांगर मोर सिरागे
हमर असन निःशक्त जन के
सरकार ला सुधि आ गे
अपन पांव मा हो जा खड़ा तैं
साभिमान जगा गे
श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छत्तीसगढ़
(शब्दार्थ : उमन दुनो परानी= वे दोनों प्राणी, सउक मा=शौक में, आनी बानी के खई ख़जेना
=विविध तरह का खाना-खजाना, यिहें आके बिसरागेहों=यहाँ आकर भूल गया, बइठ जा मोर खान्द मा= बैठ जा मेरे कंधे पर, मोर नरी के फंदा= मेरे गले पड़ी मुसीबत, फज़र=सुबह, उसनिंदा=अर्धनिद्रा में, धनही दाई= धान से परिपूर्ण माता, अऊ कतेक ले किन्जरबे तैंहा
=और कितना तुम सैर करोगे, जांगर मोर सिरागे=शरीर शक्तिहीन हो चला)
कविता का तेवर आकर्षक है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....
ReplyDeleteमैंने भी पढ लिया है, अगर ये शब्द अर्थ साथ नहीं होते तो अपनी समझ में सारा कुछ नहीं आता।
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ReplyDelete♥
आदरणीया सपना निगम जी
सादर अभिवादन !
छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस के राज्योत्सव मेला रचना पढ़ कर एक ओर जहां भाषा का अपना आनंद मिला , वहीं मन भारी भी हो गया …
छत्तीसगढ़ महतारी के
रखले मर्यादा जिंदा
भीख मांगे मा हो जाही
धनही दाई शर्मिंदा
जीयत मनखे के बोझा ला ढोवत
खान्द हा मोर पीरा गे
अऊ कतेक ले किन्जरबे तैंहा
जांगर मोर सिरागे
हमर असन निःशक्त जन के
सरकार ला सुधि आ गे
अपन पांव मा हो जा खड़ा तैं
साभिमान जगा गे
बहुत आभारी हूं रचना के लिए !
इसी तरह अर्थ देते रहें आगे भी …
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
मेरे राजस्थानी ब्लॉग पर आप भी पधारें
ReplyDeleteलिंक है
ओळ्यूं मरुधर देश री…
rajasthaniraj.blogspot.com
और
शस्वरं
shabdswarrang.blogspot.com पर भी आपकी प्रतिक्षा रहेगी…
सादर …
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteअर्थपूर्ण व भावपूर्ण कविता,आभार !
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 11-11-2011 को शुक्रवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteसुंदर कविता.
ReplyDeleteसपना जी नमस्कार, सुन्दर कविता।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....
ReplyDeleteव्वा!! का बात हे...
ReplyDeleteफेर बहुतेच सुग्घर रचना हवे...
छत्तीसगढ़ राज स्थापनादिवस के गाडा गाडा बधई...
हमर असन निःशक्त जन के
ReplyDeleteसरकार ला सुधि आ गे
अपन पांव मा हो जा खड़ा तैं
साभिमान जगा गे ...
प्रशासन की वास्तविक जिम्मेदारी को काव्य कथा के माध्यम से बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया आपने
बहुत सुन्दर शब्दों में राज्य के बारे में विस्तृत जानकारी दी है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता ! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteअपनी माटी का सुगंध लिए बहुत सुन्दर कविता|
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ की माटी के रंग डूबी बेहतरीन सुंदर रचना बढ़िया पोस्ट,..
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट में स्वागत है...
अपनी भूमि की गाथा अच्छी लगी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
मनमोहक चित्रकाव्य.
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